Sunday, June 21, 2009

समझौता.....

इसे समझौता न कहूँ तो और क्या कहूँ?
में नही समझ पा रही हूँ की क्या सही है और क्या ग़लत? बस सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया है। ये अलग बात है की अब हर दिन तकलीफ के साथ शुरू होता है। तकलीफ इस बात की कि काश हम समझ पाते। समझ पाते कि क्या सही है और क्या ग़लत। कुछ तो फ़ैसला कर पाते। यूँ वक्त के हाथों मजबूर हो जाउंगी ऐसा नही सोचा था। जितनी बार ख़ुद को समझती हूँ वही सवाल नए रूप में मेरे सामने आ कर खड़ा हो जाता है। हमें अभी बहुत कुछ समझना बाकी है। पर हिम्मत कहाँ से लाऊं? वो सब्र कहाँ से लाऊं? मैं टूटना नही चाहती। मैं लड़ना चाहती हूँ हालत से भी और अपनी कमजोरी से भी। में लडूंगी भगवान्। बस मेरी मदद करो। मेरी मदद करो।
मेरे कुछ आदर्श हैं। कुछ मूल्य हैं जिन से मैं समझौता नही कर सकती। इस रास्ते पर बहुत सी मुश्किलें आएँगी ये भी में जानती हूँ। कभी कभी हिम्मत जवाब दे जाती है। पर फ़िर से हिम्मत जुटाना भी मुझे ही पड़ेगी। और ये भी सही है कि शायद हमेशा अकेले ही चलना पड़े। किसी से साथ कि उम्मीद क्यूं रखूं? उम्मीद टूटेगी तो फिर दर्द होगा ना। मैं कुछ और नही मांगती भगवन बस मुझे शक्ति हो। शक्ति दो कि मैं अपने फैसलों पर अटल रह सकूँ। सही और ग़लत में फर्क कर सकूँ। खुश रह सकूँ और सबको खुश रख सकूँ। उन सभी लोगों को जिन्हें मेरी परवाह है।
आज ये मैंने क्या लिखा है और क्यूं लिखा है ये तो मुझे नही पता। पर जो भी लिखा है मेरे अपने जज़्बात हैं। मैं मंजिल जानती हूँ। रास्ता ढूँढ रही हूँ। उम्मीद सिर्फ़ उस उपरवाले से है कि वो रास्ता दिखायेगा। इंसानों से उमीदें रखना मैं छोड़ चुकी हूँ।