"पहले भी कुछ लोगों ने जौ बो कर गेहूं चाहा था,
हम भी इस उम्मीद में हैं लेकिन कब ऐसा होता है।"
ये पंक्तियाँ मुझे पढने को मिलीं जावेद अख्तर की किताब तरकश में। पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया। इस किताब को जब भी उठाती हूँ, हर बार कोई नई पंक्ति मन को छू जाती है।
Sunday, August 31, 2008
Saturday, August 2, 2008
अकेलापन.......
पिछले कुछ समय से अकेले होने का जो एहसास सुबह शाम मुझे कचोट रहा है , उसे में शब्दों में न तो बयां कर पा रही हूँ और न ही उसकी वजह समझ पा रही हूँ।आज अपने आस पास देखती हूँ तो लगता है की पिछले एक साल में सब आगे बढ़ गए हैं बस में वहीँ की वहीँ हूँ। सब मुझसे खुश हैं पर में अपने आप से अपनी जिंदगी से खुश नही हूँ। एक खालीपन है जो शायद पहले भी था पर जिसका दंश कभी इस कदर नही चुभा जिस तरह अब चुभ रहा है। सबकी नज़र में बड़े आराम की जिंदगी है मेरी। हर सेमेस्टर में टॉप करती हूँ, मेरे हाथ में नौकरी है, और मेरे माँ पापा को मुझ पर गर्व है। पर कोई भी ये नही समझ पता की एक साल पहले जिंदगी जीने की, हर मुसीबत का डट कर सामना करने की जो चाहत थी, जो जस्बा था, वो कहीं खो गया है। उसकी वजह में जानती हूँ, और मेरा भगवान् जनता है की मैंने कितनी कोशिश करी की उस शख्स को में अपने जीवन की सबसे बुरी दुर्घटना समझ कर भूल जाऊँ, पर साल भर बाद भी में वहीं हूँ। कोशिश करके कुछ वक्त तक ख़ुद पर संयम रख पाती हूँ पर फिर वही सवाल बार बाद दिलो दिमाग की दीवारों से टकराने लगता है की आख़िर क्यूं? मैं ही क्यूं? मैंने कभी भी कोई ऐसा कदम नही उठाया जिसके लिए मुझे किसी से भी नज़र मिलाने में हिचकिचाहट हो। पर अब मैं ख़ुद को इस सवाल का जवाब नही दे पति की मैं वो कैसे नही देख पाई जो सच मेरी आंखों के सामने था। जिसने धोखा दिया उसका तो कुछ नही बिगड़ा पर मेरे तो जीने की ललक खो गई । आज किसी रिश्ते पर भरोसा नही रह गया। ऐसा लगता है की शायद अब जिंदगी मैं कभी प्यार नही कर पाऊँगी। किसी पर भी विश्वास नही कर पाऊँगी। मैं पुनर्जन्म में विश्वास नही करती। मैंने जो कुछ जीया है उसका हिसाब मुझे मेरे भगवान् से इसी जन्म में चाहिए। हर उस रात का हिसाब चाहिए जब मुझे ये सोच कर नींद नही आई की मैं ग़लत कहाँ थी? बहुत कोशिश करी सब भूल कर आगे बढ़ने की। दूसरों की नज़रों में शायद मैं आगे बढ़ भी चुकी हूँ । पर अपने आप से अब और झूठ नही बोल सकती। मैं क्या करूँ ?
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