उंगलियाँ आज भी इस सोच में गम हैं फ़राज़,
उसने किस तरह नए हाथ को थमा होगा।
(अहमद फ़राज़)
आज कल ये नया शौक आया है मुझे। अहमद फ़राज़ की लिखी हुई नज़्मेऔर शेर पढ़ने का। ऑरकुट पर अहमद फ़राज़ की कम्युनिटी में जब ये शेर पढ़ा तो एक ही बार में दिल को छू गया। हर वो इंसान जिसने प्यार में धोका खाया है शायद बरसों-बरस इसी सोच में गम रहता है। सच ये है की कितना भी क्यूं न सोच लिया जाए कोई फर्क नही पड़ता। कुछ लोग दुनिया में आते ही धोके-बाज़ी के लिए हैं। ऐसे ही लोगों के दिए हुए ज़ख्मो को बड़ी ही खूबसूरती से बयान करता है ये शेर।
मेरी बीमारी ठीक होने का नाम नही ले रही है। जैसे जैसे वक्त गुज़रता जा रहा है, सर का दर्द और भयानक होता जा रहा है। मैंने अपने पुराने रिश्तों को भुला दिया है। नए सिरे से शुरुवात करना चाहती हूँ, नए नज़रिए के साथ। पर तबियत है की साथ ही नही देती। सब कहते हैं की कुछ दिनों बाद दर्द की दवाइयाँ भी अपना असर बंद कर देती हैं। यही चाहती हूँ की वो नौबत आने से पहले ठीक हो जाऊँ। हे भगवान्! मेरी मदद करो।
Monday, November 24, 2008
Thursday, November 6, 2008
ख्वाब.......
ख्वाब मरते नहीं,
ख्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो,
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे।
ख्वाब मरते नहीं,
ख्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं,
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नही
रौशिनी और नवा और हवा के आलम
मक्तालों में पहुँच कर भी झुकते नहीं।
ख्वाब तो हर्फ़ हैं
ख्वाब तो नूर हैं
ख्वाब तो सुकरात हैं,
ख्वाब मंसूर हैं।
(अहमद फ़राज़)
ख्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो,
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे।
ख्वाब मरते नहीं,
ख्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं,
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नही
रौशिनी और नवा और हवा के आलम
मक्तालों में पहुँच कर भी झुकते नहीं।
ख्वाब तो हर्फ़ हैं
ख्वाब तो नूर हैं
ख्वाब तो सुकरात हैं,
ख्वाब मंसूर हैं।
(अहमद फ़राज़)
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