ऐसा हो ही नहीं सकता की जो आप महसूस कर हैं, उसको बयां करने उर्दू ज़बान की कुछ पंक्तियाँ आप ना ढून्ढ पाएं. अब देखिये ना , मैं कुछ दिनों सोच रही थी की मुझे इतना लगाव क्यों है इस भाषा से. न ये मेरी मातृभाषा है, न मैंने कभी स्कूल में इसे पढ़ा. पर जब भी कुछ पढ़ा, दिल को छु गया. उर्दू के कुछ शब्द तो ऐसे होते हैं की आपको और कहीं मिल ही नहीं सकते. यही सोचते सोचते उर्दू जबान के बारे में पढ़ रही थी, और गुलज़ार साहब की ये नज़्म सामने आ गयी. ये नज़्म पढ़ने के बाद दिल को जो ख़ुशी और सुकून मिला है, ये वही समझ सकता है जिसने इस जबान की मोहब्बत महसूस की है.
नज़म कुछ इस तरह है कि -
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बान का
मज़ा घुलता है लफ़्ज़ों का ज़बान पर
कि जैसे पान में महंगा किमाम घुलता है
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बान का
नशा आता है उर्दू बोलने में
गिलौरी की तरह हैं मुँह लगी सब इस्तेलाहें
लुत्फ़ देती है, हलक छूती है उर्दू तो, हलक से जैसे मय का घूँट उतरता है
बड़ी अरिस्ट्रॉक्रेसी है ज़बान में
फकीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू
अगरचे मानी कम होते हैं उर्दू में
अल्फ़ाज़ की इफरात होती है
मगर फिर भी , बुलंद आवाज़ पढ़िए तो बहुत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है दिन जाड़ों के हैं खिड़की खुली है, धूप अंदर आ रही है
अजब है ये ज़बान, उर्दू
कभी कहीं सफर करते अगर कोई मुसाफ़िर शेर पढ़ दे 'मीर', 'ग़ालिब' का
वो चाहे अजनबी हो, यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़ी शाइस्ता लहज़े में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता की इक तहज़ीब की आवाज़ है उर्दू
(गुलज़ार)
नज़म कुछ इस तरह है कि -
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बान का
मज़ा घुलता है लफ़्ज़ों का ज़बान पर
कि जैसे पान में महंगा किमाम घुलता है
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बान का
नशा आता है उर्दू बोलने में
गिलौरी की तरह हैं मुँह लगी सब इस्तेलाहें
लुत्फ़ देती है, हलक छूती है उर्दू तो, हलक से जैसे मय का घूँट उतरता है
बड़ी अरिस्ट्रॉक्रेसी है ज़बान में
फकीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू
अगरचे मानी कम होते हैं उर्दू में
अल्फ़ाज़ की इफरात होती है
मगर फिर भी , बुलंद आवाज़ पढ़िए तो बहुत ही मोतबर लगती हैं बातें
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है दिन जाड़ों के हैं खिड़की खुली है, धूप अंदर आ रही है
अजब है ये ज़बान, उर्दू
कभी कहीं सफर करते अगर कोई मुसाफ़िर शेर पढ़ दे 'मीर', 'ग़ालिब' का
वो चाहे अजनबी हो, यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़ी शाइस्ता लहज़े में किसी से उर्दू सुनकर
क्या नहीं लगता की इक तहज़ीब की आवाज़ है उर्दू
(गुलज़ार)