Friday, December 3, 2010
कृष्णकली.
ऐसा ही एक दिन था, शायद कॉलेज में मेरे पहले ही साल में, जब शाम के वक़्त मैंने पहली बार ये उपन्यास पढ़ कर ख़त्म किया था। उस वक़्त जो मेरी मनोदशा थी वो वैसी ही थी जैसी 'गुनाहों का देवता' पढने के बाद हुई थी।
क्या कहूँ कली के बारे मे ? सुना है की जब ये कहानी अखबार में छपा करती थी तो आखरी भाग आने के बाद हंगामा हो गया था की कली मर गयी। और क्यों न होता हंगामा? एक चुलबुली सी लड़की, जो ज़िन्दगी भर बड़ी ही हिम्मत के साथ हर मुश्किल का सामना करती है, आखिर में चुपचाप चली गयी। उसका हासिल कुछ भी नहीं।
सोचो तो अजीब लगता है। अगर हर इंसान हमेशा ये सोच कर मुश्किलों से लड़ता जाये की अंत में सब ठीक हो जायेगा और अचानक से उसकी ज़िन्दगी ख़त्म हो जाये तो?
कली के जीवन का आरम्भ ही विचित्र परिस्तिथियों में हुआ। अपने स्वयं के माता पिता को उसने कभी देखा नहीं , और उम्र के १७ वर्षो तक जिन्हें माता पिता समझती रही , वो उसे नहीं समझ पाए। ऊपर से चंचल और हठी दिखने वाली वो लड़की भीतर से कितनी सहमी हुई थी, ये हम पाठक भी तभी समझ पाए जब उसने प्रवीर को अपनी जीवन गाथा सुनाई। एक ऐसी लड़की जिसने अपने सौंदर्य और बुद्धिमत्ता से संसार को परास्त किया पर स्वयं अपने अतीत और अपनी जड़ों को नहीं हरा पाई।
प्रवीर और कली का रिश्ता कभी बन ही न पाया की बिगड़ता। कली का प्रवीर की तरफ खिचाव और प्रवीर का उस से कटे हुए रहना, ये सब जब तक सुलझ पता, बड़ी देर हो गयी थी। प्रवीर की सगाई हुई और उसके अगले ही दिन वो ये जान पाया की कली के कठोर बाहरी कवच के भीतर एक घबरायी हुई, सहमी हुई लड़की है। एक ऐसी लड़की जो सहारा भी चाहती है और उस से दूर भी भागती है, जो साथ भी चलना चाहती है और डरती भी है की कहीं साथ छूट न जाये। बाकि जो हुआ वो कहने और सुनने का कोई मतलब नहीं है।
बस कहानी का अंत यही है की कली चली गयी। और अब मुझसे लिखा नहीं जा रहा है। शायद हर कहानी का अंत ऐसा ही होता है। कोई कभी नहीं समझ पता किसी और को। और जब तक समझने की कोशिश करता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
Monday, May 3, 2010
सदमा तो है.............
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं,
लेकिन ये सोचता हूँ की अब तेरा क्या हूँ मैं।
जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम,
दुनिया समझ रही है सब कुछ तेरा हूँ मैं।
(क़तील शिफाई)
इसके अलावा और क्या कहूं समझ नहीं आ रहा। ये सदमा भी अजीब शब्द होता है। तीन अक्षरों में सही हालत बयान कर देता है। इंसान कि कुछ भी महसूस करने कि शक्ति का ख़त्म हो जाना, हर चाहत ख़तम हो जाना, हर उम्मीद ख़त्म हो जाना, यही तो सदमा होता है। यही तो है जो पिछले कई दिनों से मुझे लगा है।
इस बात कि हैरानी भी कम नहीं है कि लोग किस तरह सब कुछ नकार देते हैं। हर एहसास, याद को झुठला देना बड़ा आसान होता है लोगो के लए। वक़्त हमें किस कदर बदल देता है। महज कुछ मिनटों में मेरे सारे ख्वाब ख़त्म हो गए। कहते हैं टूटे हुए सपनो कि किरचे चुभा करती हैं। मुझे तो वो एहसास भी नहीं होता, शायद दर्द ने हर एहसास ख़त्म कर दिया है।
रिश्ता इस तरह से बेमानी हो जायेगा ये नहीं सोचा था। पर अब जब हो ही गया है तो मुझे आगे का रास्ता ढूँढने में वक़्त लगेगा। कोशिश कर रही हूँ। शायद कामयाब भी हो जाऊं। अमीन।
Monday, March 15, 2010
अब मुझे कोई.......................
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ,
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ,
वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ।
आँख के एक गाँव में
रात को ख्वाब आते थे
छूने से बहते थे
बोले तो कहते थे
उड़ते ख्वाबों का ऐतबार कहाँ
उड़ते ख्वाबों का ऐतबार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ।
जिन दिनों आप थे,
आँख में धूप थी
जिन दिनों आप रहते थे,
आँख में धूप रहती थी
अब तो जाले ही जाले हैं
ये भी जाने ही वाले हैं
वो जो था दर्द का करार कहाँ
वो जो था दर्द का करार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ।
फिल्म- इश्किया
गीतकार- गुलज़ार
संगीतकार- विशाल भारद्वाज
गायिका- रेखा भारद्वाज