अटल जी की एक कविता है जिसकी ये पंक्तियाँ हैं:
हार नहीं मानूंगा , रार नयी ठानूंगा।
पता नहीं कैसे अचानक से याद आ गयी. शायद हालत ऐसे हैं इसलिए . मन एक तरह से हार मान ही चुका है. और में अपने मैं को समझने की कोशिश कर रही हु. लो जी। दूसरी पंक्तियाँ याद आ गयीं.
दिल को समझना कह दो क्या आसान है।
दिल तो फितरत से ही सुन लो न बेईमान है.
ये एक गीत का अंतरा है. फिल्म खोया खोया चाँद से.
जब से उदास हूँ खुद को बहला रही हूँ कुछ नज़्मों , कुछ गीतों और कुछ किताबों से. किताबें कौनसी? जादू वाली. जिसमे कोई न कोई फरिश्ता आता है राह दिखने के लिए. मेरी मदद के लिए भी कोई आएगा, नहीं तो मेरे गॉड जी ही ऊपर से कोई सिग्नल देंगे. आज मुझे वापस ल कर यहीं खड़ा कर दिया. इस ब्लॉग के सामने। ये भी तो एक सिग्नल ही है।
अच्छा देखते हैं और क्या क्या याद याद आता है.
टूटा टूटा एक परिंदा ऐसे टूटा, की फिर जुड़ न पाया।
लूटा लूटा किसने उसको ऐसे लूटा, की फिर उड़ न पाया।
गिरता हुआ वो आसमा से आ कर गिरा ज़मीन पर।
आँखों में फिर भी बादल ही थे वो कहता रहा मगर.
की अल्लाह के बन्दे हँस दे अल्लाह के बंदे।
अल्लाह के बन्दे हंस दे, जो भी हो कल फिर आयेगा।
अच्छा देखते हैं और क्या क्या याद याद आता है.
टूटा टूटा एक परिंदा ऐसे टूटा, की फिर जुड़ न पाया।
लूटा लूटा किसने उसको ऐसे लूटा, की फिर उड़ न पाया।
गिरता हुआ वो आसमा से आ कर गिरा ज़मीन पर।
आँखों में फिर भी बादल ही थे वो कहता रहा मगर.
की अल्लाह के बन्दे हँस दे अल्लाह के बंदे।
अल्लाह के बन्दे हंस दे, जो भी हो कल फिर आयेगा।
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