Friday, February 29, 2008

रंजिश ही सही

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,
आ फ़िर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।

पहले से मरासिम न सही फ़िर भी कभी तो
रस्मो रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ।

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम,
तू मुझसे खफा है तो ज़माने के लिए आ।

कुछ तो मेरे पिन्दारे- मोहब्बत का भरम रख,
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ।

एक उम्र से हूँ लअज्ज़ते - गिरिया से भी महरूम,
ऐ राहते - जां मुझको रुलाने के लिए आ.

अब तक दिले खुश्फहेम को तुझसे हैं उम्मीदें,
ये आखरी शम्में भी बुझाने के लिए आ।

माना के मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत,
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ।

जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहने,
ऐसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ।

ये ग़ज़ल काफी दिनों से पोस्ट करना चाह रही थी पर इसके सारे अल्फाज़ नही मिल पा रहे थे। कल बहुत ढूँढने पर इंटरनेट पर मिल गए। ये ग़ज़ल पहले हमेशा मेरे लिए एक पहेली हुआ करती थी। मन मी एक ही सवाल उठा करता था की कोई किसी को दिल दुखाने के लिए और छोड़ के जाने के लिए क्यों बुलाएगा। कहते हैं न की
" जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।"
तो जब ख़ुद इस दौर से गुज़री तो मालूम हुआ की कभी कभी किसी के होने का एहसास होना ही बहुत ज़रूरी होता है। फ़िर चाहे वो इंसान आपकी तकलीफों की वजह ही क्यों न हो। प्यार इंसान को इस कदर मजबूर कर देता है की उसको दर्द भी अपना लगने लगता है। सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो दर्द उस का दिया हुआ होता है जिस से वो मुहब्बत करता है।

2 comments:

  1. हिंदी में लिखने के लिए बधाई ! रंजिश ही सही ..अहमद फ़राज साहब ने किसी की याद में लिखी थी। जिसके लिए लिखी थी उसे कभी बता नहीं पाए की ये तुम्हें सोचकर लिखा था। पर इसे लिखने के वर्षों बाद जब वो अपने एक common friend से मिले तो उसने कहा कि अरे वो तो हमेशा कहती है कि फ़राज की ये ग़ज़ल मेरे लिए है।

    रंजिशों के बाद भी दिल के एक कोने में प्रेम का दीपक जलता ही रहता है।

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  2. बहुत सुंदर गज़ल है.. क्या आपने लिखी है..
    इतनी कम उम्र में.. बहुत खूब..

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