Monday, March 3, 2008

गुनाहों का देवता

ये आज फिज़ा खामोश है क्यों, हर ज़र्र को आख़िर होश है क्यों,
या तुम ही किसी के हो न सके , या कोई तुम्हारा हो न सका।

यही पंक्तियाँ हैं जो दिल मे कई दिनों तक तूफान सी उठती रही थीं जब मैंने पहली बार गुनाहों का देवता पढी थी। मैं तब सदमे में आ गई थी। सोचा ही नही था की जिस कहानी की शुरुआत इतनी मासूम और दिल को छू लेने वाली थी उसका अंत इतना दर्दनाक हो सकता है।
कभी कभी ऐसा भी होता है की हमारी ज़िंदगी के फैसले हमारे ही हाथों मे नही होते। वो फैसले या तो हमारी तकदीर लेती है या ऐसा कोई जिसे हमने उन्हें लेने का हक दिया होता है। कभी कभी हालत के हाथों मजबूर होकर भी हम कुछ फैसले लेते हैं। कभी हम ऐसे लोगों के सामने भी मजबूर हो जाते हैं जिनसे हम बहुत प्यार करते हैं

सुधा,जिसकी हर धड़कन चंदर की ताल पर थिरकती थी, उसने कभी भी ये नही सोचा होगा की चंदर उसको इस तरह से ख़ुद से दूर कर देगा। सुधा की तो हर साँस पर चंदर का हक था। पर सुधा की कोमल भावनाओं को चंदर ने अपने महान बनने की कोशिश मे नज़रंदाज़ कर दिया। मैं मानती हूँ की उसको सुधा की तकलीफ का एहसास था। पर सिर्फ़ एहसास काफी नही होता। सबसे बड़ी बात तो ये है की उन तकलीफों की वजह भी वो ख़ुद था। इंसान ये क्यों नही सोचता की कभी कभी एक आम आदमी बने रहना महान बनने से ज्यादा सुकून दे सकता है।
चंदर महान बनना चाहता था। वो चाहता था की वो और सुधा प्रेम पराकाष्ठा को छू लें। प्रेम की सांसारिक तस्वीर से अलग एक ऊंचाई तक पहुँचें। ख्वाब बहुत बड़ा था, पर चंदर का हौंसला नही। सुधा को एक अंधे कुएं मे धकेल कर वो ख़ुद दिशा खो बैठा और अपना आत्मविश्वास भी। उसका आत्मविश्वास लौटने की कोशिश मे सुधा ने अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी।
मेरी पोस्ट पढ़ कर शायद सभी को ये लगे की मैंने एक बार भी ये नही सोचा की चंदर किस दर्द से गुज़रा। ये बात नही है। मैं मानती हूँ की तकलीफ चंदर को भी हुई, पर उसका जिम्मेदार वो ख़ुद था। जब उसमे इतनी हिम्मत थी की दोनों की ज़िंदगी के फैसले वो ख़ुद ले सके और फिर सुधा को उन्हें मानने के लिए मजबूर कर सके तो फिर उस फैसले को ज़िंदगी भर खुशी से मनाने का माद्दा भी होना चाहिए था। बड़े बड़े सपने देखना बहुत आसन होता है। पर उन सपनों के लिए किसी और की ज़िंदगी से खेला नही जाता। वो भी ऐसे इंसान की जो आप पर बहुत भरोसा करता है और जिस से प्यार करने का दावा आप ख़ुद करते हैं। और अगर ऐसा कर भी गए तो फिर कम से कम उस इंसान को बीच मंझधार मे छोड़ कर अपने ही फैसलों पर अफ़सोस नही जताया जाता। विश्वास की बात करने वाले कभी विश्वासघात नही करते। जो लोग ज़िंदगी का सहारा होते हैं वो बीच राह मे साथ नही छोड़ते।
अक्सर सोचती हूँ की क्या गुज़री होगी सुधा पर जब उसने चंदर को अपने ही सिद्धांतों से पीछे हटते देखा होगा। जीवन के मूल्यों को सुधा ने चंदर से ही समझा था। उसकी प्रेम मे जो आस्था थी उसकी नींव चंदर पर उसका विश्वास था। चंदर के कदमो के डगमगाने ने उस विश्वास को खोखला साबित कर दिया। सुधा को ये सोचने पर मजबूर कर दिया की उस ही के प्यार मे कहीं कोई कमी रह गई जो चंदर दिशाहीन हो गया। इस अपराधबोध ने सुधा की जान ले ली। कितने दुःख की बात है की उसने बिना गलती किए ही बाकी सब की गलतियों की सज़ा भुगती। कई पंक्तियाँ हैं जो दिल को छूती हैं पर फिलहाल तो यही याद आ रही है की-
मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफा भी हमारा हो न सका।

5 comments:

  1. achha likha hai aapne.
    is vishay par to aapse pehle bhi baat ho hi chuki hai.

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  2. आप हिंदी में ज्यादा अच्छा लिखती हैं.. हिंदी में ही लिखा कीजिए.. अच्छा व्यक्त होता है...

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  3. बेहद मुश््किल है इंसान का इंसान बने रहना।
    inqalabjindabad.wordpress.com

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  4. Charu ji, maine ye novel nahi padha hai, par ab jarur padhunga kyuki aapne jo likha hai usne mujhme 1 jigyasa si bhar di hai iske prati, 1 baat or achchi lagi ki aapne sirf kahani nahi padhi balki patro ke dard ko bhi samjha hai

    bahut khub hai aap

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  5. ati uttam Charu ji. ye novel maine college time mein pata tha. Aap ki pratikriya bhi kafi achhi hai. Jahan tak Chander ke character ka prasn hai, mujhe bhi novel padhte waqt baar-2 yahi lag raha tha ki ye aisa kyun kar raha hai. but novel khatm hone ke baat mere thodi sahaanibhuti uske prati huyi. kabhi kabhi hamare apne lobh ke karan hamara aacharan dusron ki najaron mein,jinka hum aadar karte hai, patit ho jata hai.Khair gar main uske charitra ki samiksha karne laga to comment lamba ho jayega.
    .....Well done.

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