today i am not going to analyze any geet or ghazal or book as my doctot has advised me not to give any stress to my brain. recently i was declared to be sick with migraine. now only god can help me. i have to bring my habit of thinking to a full stop. i dont know how am i going to do this. till now no one knows that i have started blogging. i dont want anyone to know this. how on earth can ever a person can stop thinking. i dont do it in my spare time as a hobby. it comes naturally to me. now everyone, my family and my friends are behind me always shouting, " see, you are thinking again." what can i do. i am not permitted to read, write, switch on my computer or watch tv. so the only thing which i can do now a days is to think. so i am thinking about the causes of my stress. this has grown to be another stress for me.
i dont agree with the doctor that the major reason behind this disease in headache. i have read that its a heriditary problem. papa had it so any of us had to get it. unfortunately i got it. mom says its not a misfortune. the reason why i got it and my siblings didn't is my habit of thinking. my mom is surely a genius. but she also couldn't tell me a sure-shot way to stop thinking. besides this i also dont know what that i am thinking is causing this problem. this is another reasn to think for me.as the pain is still there after 10 days of medication, now everyone is worried that there can be some other problem or better to say that the disease was not diagnosed properly. now i have to go for ctscan tomorrow.
best of luck to me.
Monday, March 31, 2008
Friday, March 28, 2008
आदतन तुम ने कर दिए वादे.
आदतन तुम ने कर दिए वादे,
आदतन हम ने ऐतबार किया
तेरी राहों मे बारहा रुक कर,
हम ने अपना ही इंतज़ार किया।
अब न मांगेंगे ज़िंदगी या रब,
ये गुनाह हम ने एक बार किया।
(गुलज़ार)
आदतन हम ने ऐतबार किया
तेरी राहों मे बारहा रुक कर,
हम ने अपना ही इंतज़ार किया।
अब न मांगेंगे ज़िंदगी या रब,
ये गुनाह हम ने एक बार किया।
(गुलज़ार)
Thursday, March 27, 2008
दर्द अपनाता है
दर्द अपनाता है पराये कौन,
कौन सुनताहै और सुनाये कौन।
कौन दोहराए वो पुरानी बात,
दर्द अभी सोया है जगाये कौन।
वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं,
कौन दुःख झेले आजमाये कौन।
अब सुकून है तो भुलाने में है,
लेकिन उस शख्स को भुलाए कौन।
आज फिर दिल है उदास उदास ,
देखिये आज याद आए कौन।
( जावेद अख्तर)
Saturday, March 22, 2008
आगाज़ तो होता है, अंजाम नहीं होता.
आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता,
जब मेरी कहानी में वो नाम नही होता।
जब जुल्फ की स्याही मे घुल जाये कोई राही,
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नही होता।
हँस-हँस के जवां दिल के हम क्यों ना चुनें टुकडे,
हर शख्स की किस्मत मे ईनाम नहीं होता।
बहते हुए आंसू ने आंखों से कहा थम कर,
जो मय से पिघल जाये वो जाम नही होता।
दिन डूबे हैं या डूबी बरात लिए कश्ती,
साहिल पे मगर कोई कोहराम नही होता।
(मीना कुमारी)
जब मेरी कहानी में वो नाम नही होता।
जब जुल्फ की स्याही मे घुल जाये कोई राही,
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नही होता।
हँस-हँस के जवां दिल के हम क्यों ना चुनें टुकडे,
हर शख्स की किस्मत मे ईनाम नहीं होता।
बहते हुए आंसू ने आंखों से कहा थम कर,
जो मय से पिघल जाये वो जाम नही होता।
दिन डूबे हैं या डूबी बरात लिए कश्ती,
साहिल पे मगर कोई कोहराम नही होता।
(मीना कुमारी)
Monday, March 17, 2008
शम्मा जलाये रखना
शम्मा जलाये रखना, जब तक के मैं न आऊं।
ख़ुद को बचाए रखना, जब तक के मैं न आऊं।
जिन्दा-दिलों से दुनिया जिंदा सदा रही है,
महफिल सजाये रखना जब तक के मैं न आऊं।
ये वक्त इम्तिहा है, सबरो-करार दिल का,
आंसू छुपाये रखना, जब तक मैं न आऊं।
हम-तुम मिलेंगे ऐसे जैसे जुदा नही थे,
साँसे बचाए रखना, जब तक के मैं न आऊं।
शम्मा जलाये रखना, जब तक के मैं न आऊं।
गायक- भूपिंदर एवं मिताली जी
गीतकार( पता नही)
Monday, March 10, 2008
saaya
इस फ़िल्म का नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा और उस एस भी कम लोगों ने इसे देखा होगा। ये मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है। मेरी पिछली पोस्ट के बारे मे मनीष जी के विचार पढ़ कर इस फ़िल्म के एक गाने की कुछ पंक्तियाँ याद आई जो कि इस प्रकार हैं-
वक्त मरहम है तेरा ज़ख्म भी वो भर देगा,
बिन तेरे जीने के लायक वो मुझे कर देगा,
फ़िर नए रास्ते देगा वो मेरे कदमों को,
फ़िर मुझे लौट के आने का कोई डर देगा।
इस फ़िल्म के निर्देशक थे अनुराग बासु और अभिनेता एवं अभिनेत्री थे जॉन अब्राहम(आकाश) और तारा शर्मा(माया) । इस फ़िल्म की मुझे जो बात सबसे ज्यादा पसंद आई थी वो ये थी की इसके गीत परिस्थितियों के अनुरूप थे। इसका हर गीत मुझे बहुत पसंद है। जो पंक्तियाँ मैंने ऊपर प्रस्तुत करी हैं वो दरअसल अंतरे में आती हैं। मुखड़ा कुछ इस तरह है-
जो न होना था, वो मुझे होना पड़ा ,
आज खो कर तुझे जिंदा रहना पड़ा ,
वक्त ने जो दिया मुझे वो जख्म सीना पड़ा।
एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध उसकी म्रत्यु के बाद भी रहता है। आपके अवचेतन मन में वो इंसान हमेशा जीवित रहता है जिस से आप जुड़े हुए होते हैं। माया के चले जाने के बाद भी आकाश को ये अहसास होता रहता है की माया उस से कुछ कहना चाहती है। माया के लिए उसका प्यार और उसका विश्वास उसे कहाँ तक ले जाता है ये मैं आपको नही बताऊंगी। आप अगर ख़ुद इस फ़िल्म को देखेंगे तभी इसमे छिपी हुई और व्यक्त की गई हर भावना को बेहतर तरीके से समझ सकेंगे।
जहाँ तक इस गीत का सवाल है, इसे गाया है श्रेया घोषाल और उदित नारायण ने। इसके बोल लिखे हैं सईद कादरी जी ने। ये गाना फ़िल्म में दो बार आता है। पहले माया की मौत के बादश्रेया घोषाल की आवाज़ में। कुछ इस तरह के बोल हैं-
दूर दुनिया से तेरे इतना चली आई हूँ,
आज में जिस्म नही आज मैं परछाई हूँ,
हर जगह भीड़ का सैलाब तेरे चारों तरफ़,
मैं अपने आप में सिमटी हुई तन्हाई हूँ।
जो भी हासिल हुआ पा के खोना पड़ा।
पास हैं मेरे तेरे साथ गुज़रे लम्हे,
कुछ अधूरे रहे कुछ पूरे हो गए सपने।
बहुत संभाल के रखती हूँ इनको सीने में ,
अब इस जहाँ में मेरे तोह हैं यही अपने,
याद कर के जिन्हें रात दिन रोना पड़ा।
दूसरी बार ये गीत आता है उदित नारायण की आवाज़ में जब आकाश अपनी हालत के चलते शहर छोड़ने का इरादा बना लेता है। उस वक्त ये पंक्तियाँ सुनाई पड़ती हैं-
फ़िर कहीं शहर में छोटा सा घर बना लूंगा,
तू सजा था कभी उस तरह में सजा लूंगा,
फ़िर नए रंगों से रंग लूंगा उसकी दीवारें,
कुछ नए ख्वाब भी गमलों में मैं लगा लूंगा।
तेरे गम का ज़हर यूं भी पीना पड़ा,
आज खो कर तुझे जिंदा रहना पड़ा ,
वक्त ने जो दिया मुझे वो ज़ख्म सीना पड़ा।
इस गाने के बोल इतने सहज एवं सरल हैं कि ज्यादा कुछ कहने कि आवश्यकता बाकी नही रह जाती। फुरसत के वक्त और खासकर के जब मन थोड़ा उदास हो में इस गाने को गुनगुनाना पसंद करती हूँ।
वक्त मरहम है तेरा ज़ख्म भी वो भर देगा,
बिन तेरे जीने के लायक वो मुझे कर देगा,
फ़िर नए रास्ते देगा वो मेरे कदमों को,
फ़िर मुझे लौट के आने का कोई डर देगा।
इस फ़िल्म के निर्देशक थे अनुराग बासु और अभिनेता एवं अभिनेत्री थे जॉन अब्राहम(आकाश) और तारा शर्मा(माया) । इस फ़िल्म की मुझे जो बात सबसे ज्यादा पसंद आई थी वो ये थी की इसके गीत परिस्थितियों के अनुरूप थे। इसका हर गीत मुझे बहुत पसंद है। जो पंक्तियाँ मैंने ऊपर प्रस्तुत करी हैं वो दरअसल अंतरे में आती हैं। मुखड़ा कुछ इस तरह है-
जो न होना था, वो मुझे होना पड़ा ,
आज खो कर तुझे जिंदा रहना पड़ा ,
वक्त ने जो दिया मुझे वो जख्म सीना पड़ा।
एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध उसकी म्रत्यु के बाद भी रहता है। आपके अवचेतन मन में वो इंसान हमेशा जीवित रहता है जिस से आप जुड़े हुए होते हैं। माया के चले जाने के बाद भी आकाश को ये अहसास होता रहता है की माया उस से कुछ कहना चाहती है। माया के लिए उसका प्यार और उसका विश्वास उसे कहाँ तक ले जाता है ये मैं आपको नही बताऊंगी। आप अगर ख़ुद इस फ़िल्म को देखेंगे तभी इसमे छिपी हुई और व्यक्त की गई हर भावना को बेहतर तरीके से समझ सकेंगे।
जहाँ तक इस गीत का सवाल है, इसे गाया है श्रेया घोषाल और उदित नारायण ने। इसके बोल लिखे हैं सईद कादरी जी ने। ये गाना फ़िल्म में दो बार आता है। पहले माया की मौत के बादश्रेया घोषाल की आवाज़ में। कुछ इस तरह के बोल हैं-
दूर दुनिया से तेरे इतना चली आई हूँ,
आज में जिस्म नही आज मैं परछाई हूँ,
हर जगह भीड़ का सैलाब तेरे चारों तरफ़,
मैं अपने आप में सिमटी हुई तन्हाई हूँ।
जो भी हासिल हुआ पा के खोना पड़ा।
पास हैं मेरे तेरे साथ गुज़रे लम्हे,
कुछ अधूरे रहे कुछ पूरे हो गए सपने।
बहुत संभाल के रखती हूँ इनको सीने में ,
अब इस जहाँ में मेरे तोह हैं यही अपने,
याद कर के जिन्हें रात दिन रोना पड़ा।
दूसरी बार ये गीत आता है उदित नारायण की आवाज़ में जब आकाश अपनी हालत के चलते शहर छोड़ने का इरादा बना लेता है। उस वक्त ये पंक्तियाँ सुनाई पड़ती हैं-
फ़िर कहीं शहर में छोटा सा घर बना लूंगा,
तू सजा था कभी उस तरह में सजा लूंगा,
फ़िर नए रंगों से रंग लूंगा उसकी दीवारें,
कुछ नए ख्वाब भी गमलों में मैं लगा लूंगा।
तेरे गम का ज़हर यूं भी पीना पड़ा,
आज खो कर तुझे जिंदा रहना पड़ा ,
वक्त ने जो दिया मुझे वो ज़ख्म सीना पड़ा।
इस गाने के बोल इतने सहज एवं सरल हैं कि ज्यादा कुछ कहने कि आवश्यकता बाकी नही रह जाती। फुरसत के वक्त और खासकर के जब मन थोड़ा उदास हो में इस गाने को गुनगुनाना पसंद करती हूँ।
Friday, March 7, 2008
i m not past it till now
i am tyrying to write down something since last 4 hours but not getting exact words. i think i m maha-upset with something and have no clue about it till now. today i was not able to attend my coaching class as i am sick. apart from this physical sickness, my mental state also dosen't allow me to do a lot of things. like i want to laugh, i want to forget everything that upsets me and everyone who has ever hurt me. but as always i m not able to do what i wish to. i m having this stupid headache since 3 days now and can do nothing as i know the reason behind it is my habit of thinking about the past again and again. i know that nothing can be done about a lot of things but i have this idiotic habit of thinking and thinking and thinking. i had this intution that though my papers were very good, something is going to get wrong. i had warned all my friends and everyone was suggesting me to be positive. now the result is out. though i have topped the class, my percentages are not upto my expectations. i m feeling really sad. it was not my mistake. it was mere luck. but why does this always happen to me. after all that i had to go through last year i was hoping to live life with new perspective in the new year. but everyday my past comes in front of me in one way or other. i try a lot to pretend that it doesn't bother me anymore and i have suceede a bit in pretending as my friends now believe me when i say that i m absolutely fine and fit. but i cant tell a lie to my own soul which always dreads at the thought of an encounter with him. i had loved him so dearly. but he was never loyal to me. not for a single second. atleast this is what i think now. but this had to happen to me. aafter thinking for almost i year and a half i had admitted my feelings about him to myself and then to him. i had thought about every problem which we would have faced, every step that we should have took. every positive and negative result of every single stupid question. i was so afraid to admit that i loved him that while while saying yes to his proposal which he had put in front of me 27th tlme, i had tears in my eyes. i had asked just one thing from him, to be honest. and look at my fate. that person never ever spoke a single truth to me. he was bold enough to break my trust and then accept that he has cheated me. i was shattered. but i tried to gather all the courage that was present inside me and face this blow with determination and hopes. everyone, including him now believes that i have eft everything behind and have moved forward in my life. a part of my soul has exactly done this only. but somewhere deep inside my heart there still is this question that-
" jo hua agar wo nahi hota to jo hota wo kaisa hota."
" jo hua agar wo nahi hota to jo hota wo kaisa hota."
Monday, March 3, 2008
गुनाहों का देवता
ये आज फिज़ा खामोश है क्यों, हर ज़र्र को आख़िर होश है क्यों,
या तुम ही किसी के हो न सके , या कोई तुम्हारा हो न सका।
यही पंक्तियाँ हैं जो दिल मे कई दिनों तक तूफान सी उठती रही थीं जब मैंने पहली बार गुनाहों का देवता पढी थी। मैं तब सदमे में आ गई थी। सोचा ही नही था की जिस कहानी की शुरुआत इतनी मासूम और दिल को छू लेने वाली थी उसका अंत इतना दर्दनाक हो सकता है।
कभी कभी ऐसा भी होता है की हमारी ज़िंदगी के फैसले हमारे ही हाथों मे नही होते। वो फैसले या तो हमारी तकदीर लेती है या ऐसा कोई जिसे हमने उन्हें लेने का हक दिया होता है। कभी कभी हालत के हाथों मजबूर होकर भी हम कुछ फैसले लेते हैं। कभी हम ऐसे लोगों के सामने भी मजबूर हो जाते हैं जिनसे हम बहुत प्यार करते हैं
सुधा,जिसकी हर धड़कन चंदर की ताल पर थिरकती थी, उसने कभी भी ये नही सोचा होगा की चंदर उसको इस तरह से ख़ुद से दूर कर देगा। सुधा की तो हर साँस पर चंदर का हक था। पर सुधा की कोमल भावनाओं को चंदर ने अपने महान बनने की कोशिश मे नज़रंदाज़ कर दिया। मैं मानती हूँ की उसको सुधा की तकलीफ का एहसास था। पर सिर्फ़ एहसास काफी नही होता। सबसे बड़ी बात तो ये है की उन तकलीफों की वजह भी वो ख़ुद था। इंसान ये क्यों नही सोचता की कभी कभी एक आम आदमी बने रहना महान बनने से ज्यादा सुकून दे सकता है।
चंदर महान बनना चाहता था। वो चाहता था की वो और सुधा प्रेम पराकाष्ठा को छू लें। प्रेम की सांसारिक तस्वीर से अलग एक ऊंचाई तक पहुँचें। ख्वाब बहुत बड़ा था, पर चंदर का हौंसला नही। सुधा को एक अंधे कुएं मे धकेल कर वो ख़ुद दिशा खो बैठा और अपना आत्मविश्वास भी। उसका आत्मविश्वास लौटने की कोशिश मे सुधा ने अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी।
मेरी पोस्ट पढ़ कर शायद सभी को ये लगे की मैंने एक बार भी ये नही सोचा की चंदर किस दर्द से गुज़रा। ये बात नही है। मैं मानती हूँ की तकलीफ चंदर को भी हुई, पर उसका जिम्मेदार वो ख़ुद था। जब उसमे इतनी हिम्मत थी की दोनों की ज़िंदगी के फैसले वो ख़ुद ले सके और फिर सुधा को उन्हें मानने के लिए मजबूर कर सके तो फिर उस फैसले को ज़िंदगी भर खुशी से मनाने का माद्दा भी होना चाहिए था। बड़े बड़े सपने देखना बहुत आसन होता है। पर उन सपनों के लिए किसी और की ज़िंदगी से खेला नही जाता। वो भी ऐसे इंसान की जो आप पर बहुत भरोसा करता है और जिस से प्यार करने का दावा आप ख़ुद करते हैं। और अगर ऐसा कर भी गए तो फिर कम से कम उस इंसान को बीच मंझधार मे छोड़ कर अपने ही फैसलों पर अफ़सोस नही जताया जाता। विश्वास की बात करने वाले कभी विश्वासघात नही करते। जो लोग ज़िंदगी का सहारा होते हैं वो बीच राह मे साथ नही छोड़ते।
अक्सर सोचती हूँ की क्या गुज़री होगी सुधा पर जब उसने चंदर को अपने ही सिद्धांतों से पीछे हटते देखा होगा। जीवन के मूल्यों को सुधा ने चंदर से ही समझा था। उसकी प्रेम मे जो आस्था थी उसकी नींव चंदर पर उसका विश्वास था। चंदर के कदमो के डगमगाने ने उस विश्वास को खोखला साबित कर दिया। सुधा को ये सोचने पर मजबूर कर दिया की उस ही के प्यार मे कहीं कोई कमी रह गई जो चंदर दिशाहीन हो गया। इस अपराधबोध ने सुधा की जान ले ली। कितने दुःख की बात है की उसने बिना गलती किए ही बाकी सब की गलतियों की सज़ा भुगती। कई पंक्तियाँ हैं जो दिल को छूती हैं पर फिलहाल तो यही याद आ रही है की-
मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफा भी हमारा हो न सका।
या तुम ही किसी के हो न सके , या कोई तुम्हारा हो न सका।
यही पंक्तियाँ हैं जो दिल मे कई दिनों तक तूफान सी उठती रही थीं जब मैंने पहली बार गुनाहों का देवता पढी थी। मैं तब सदमे में आ गई थी। सोचा ही नही था की जिस कहानी की शुरुआत इतनी मासूम और दिल को छू लेने वाली थी उसका अंत इतना दर्दनाक हो सकता है।
कभी कभी ऐसा भी होता है की हमारी ज़िंदगी के फैसले हमारे ही हाथों मे नही होते। वो फैसले या तो हमारी तकदीर लेती है या ऐसा कोई जिसे हमने उन्हें लेने का हक दिया होता है। कभी कभी हालत के हाथों मजबूर होकर भी हम कुछ फैसले लेते हैं। कभी हम ऐसे लोगों के सामने भी मजबूर हो जाते हैं जिनसे हम बहुत प्यार करते हैं
सुधा,जिसकी हर धड़कन चंदर की ताल पर थिरकती थी, उसने कभी भी ये नही सोचा होगा की चंदर उसको इस तरह से ख़ुद से दूर कर देगा। सुधा की तो हर साँस पर चंदर का हक था। पर सुधा की कोमल भावनाओं को चंदर ने अपने महान बनने की कोशिश मे नज़रंदाज़ कर दिया। मैं मानती हूँ की उसको सुधा की तकलीफ का एहसास था। पर सिर्फ़ एहसास काफी नही होता। सबसे बड़ी बात तो ये है की उन तकलीफों की वजह भी वो ख़ुद था। इंसान ये क्यों नही सोचता की कभी कभी एक आम आदमी बने रहना महान बनने से ज्यादा सुकून दे सकता है।
चंदर महान बनना चाहता था। वो चाहता था की वो और सुधा प्रेम पराकाष्ठा को छू लें। प्रेम की सांसारिक तस्वीर से अलग एक ऊंचाई तक पहुँचें। ख्वाब बहुत बड़ा था, पर चंदर का हौंसला नही। सुधा को एक अंधे कुएं मे धकेल कर वो ख़ुद दिशा खो बैठा और अपना आत्मविश्वास भी। उसका आत्मविश्वास लौटने की कोशिश मे सुधा ने अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी।
मेरी पोस्ट पढ़ कर शायद सभी को ये लगे की मैंने एक बार भी ये नही सोचा की चंदर किस दर्द से गुज़रा। ये बात नही है। मैं मानती हूँ की तकलीफ चंदर को भी हुई, पर उसका जिम्मेदार वो ख़ुद था। जब उसमे इतनी हिम्मत थी की दोनों की ज़िंदगी के फैसले वो ख़ुद ले सके और फिर सुधा को उन्हें मानने के लिए मजबूर कर सके तो फिर उस फैसले को ज़िंदगी भर खुशी से मनाने का माद्दा भी होना चाहिए था। बड़े बड़े सपने देखना बहुत आसन होता है। पर उन सपनों के लिए किसी और की ज़िंदगी से खेला नही जाता। वो भी ऐसे इंसान की जो आप पर बहुत भरोसा करता है और जिस से प्यार करने का दावा आप ख़ुद करते हैं। और अगर ऐसा कर भी गए तो फिर कम से कम उस इंसान को बीच मंझधार मे छोड़ कर अपने ही फैसलों पर अफ़सोस नही जताया जाता। विश्वास की बात करने वाले कभी विश्वासघात नही करते। जो लोग ज़िंदगी का सहारा होते हैं वो बीच राह मे साथ नही छोड़ते।
अक्सर सोचती हूँ की क्या गुज़री होगी सुधा पर जब उसने चंदर को अपने ही सिद्धांतों से पीछे हटते देखा होगा। जीवन के मूल्यों को सुधा ने चंदर से ही समझा था। उसकी प्रेम मे जो आस्था थी उसकी नींव चंदर पर उसका विश्वास था। चंदर के कदमो के डगमगाने ने उस विश्वास को खोखला साबित कर दिया। सुधा को ये सोचने पर मजबूर कर दिया की उस ही के प्यार मे कहीं कोई कमी रह गई जो चंदर दिशाहीन हो गया। इस अपराधबोध ने सुधा की जान ले ली। कितने दुःख की बात है की उसने बिना गलती किए ही बाकी सब की गलतियों की सज़ा भुगती। कई पंक्तियाँ हैं जो दिल को छूती हैं पर फिलहाल तो यही याद आ रही है की-
मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफा भी हमारा हो न सका।
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